-
Notifications
You must be signed in to change notification settings - Fork 0
/
Copy path15.html
5063 lines (5062 loc) · 483 KB
/
15.html
1
2
3
4
5
6
7
8
9
10
11
12
13
14
15
16
17
18
19
20
21
22
23
24
25
26
27
28
29
30
31
32
33
34
35
36
37
38
39
40
41
42
43
44
45
46
47
48
49
50
51
52
53
54
55
56
57
58
59
60
61
62
63
64
65
66
67
68
69
70
71
72
73
74
75
76
77
78
79
80
81
82
83
84
85
86
87
88
89
90
91
92
93
94
95
96
97
98
99
100
101
102
103
104
105
106
107
108
109
110
111
112
113
114
115
116
117
118
119
120
121
122
123
124
125
126
127
128
129
130
131
132
133
134
135
136
137
138
139
140
141
142
143
144
145
146
147
148
149
150
151
152
153
154
155
156
157
158
159
160
161
162
163
164
165
166
167
168
169
170
171
172
173
174
175
176
177
178
179
180
181
182
183
184
185
186
187
188
189
190
191
192
193
194
195
196
197
198
199
200
201
202
203
204
205
206
207
208
209
210
211
212
213
214
215
216
217
218
219
220
221
222
223
224
225
226
227
228
229
230
231
232
233
234
235
236
237
238
239
240
241
242
243
244
245
246
247
248
249
250
251
252
253
254
255
256
257
258
259
260
261
262
263
264
265
266
267
268
269
270
271
272
273
274
275
276
277
278
279
280
281
282
283
284
285
286
287
288
289
290
291
292
293
294
295
296
297
298
299
300
301
302
303
304
305
306
307
308
309
310
311
312
313
314
315
316
317
318
319
320
321
322
323
324
325
326
327
328
329
330
331
332
333
334
335
336
337
338
339
340
341
342
343
344
345
346
347
348
349
350
351
352
353
354
355
356
357
358
359
360
361
362
363
364
365
366
367
368
369
370
371
372
373
374
375
376
377
378
379
380
381
382
383
384
385
386
387
388
389
390
391
392
393
394
395
396
397
398
399
400
401
402
403
404
405
406
407
408
409
410
411
412
413
414
415
416
417
418
419
420
421
422
423
424
425
426
427
428
429
430
431
432
433
434
435
436
437
438
439
440
441
442
443
444
445
446
447
448
449
450
451
452
453
454
455
456
457
458
459
460
461
462
463
464
465
466
467
468
469
470
471
472
473
474
475
476
477
478
479
480
481
482
483
484
485
486
487
488
489
490
491
492
493
494
495
496
497
498
499
500
501
502
503
504
505
506
507
508
509
510
511
512
513
514
515
516
517
518
519
520
521
522
523
524
525
526
527
528
529
530
531
532
533
534
535
536
537
538
539
540
541
542
543
544
545
546
547
548
549
550
551
552
553
554
555
556
557
558
559
560
561
562
563
564
565
566
567
568
569
570
571
572
573
574
575
576
577
578
579
580
581
582
583
584
585
586
587
588
589
590
591
592
593
594
595
596
597
598
599
600
601
602
603
604
605
606
607
608
609
610
611
612
613
614
615
616
617
618
619
620
621
622
623
624
625
626
627
628
629
630
631
632
633
634
635
636
637
638
639
640
641
642
643
644
645
646
647
648
649
650
651
652
653
654
655
656
657
658
659
660
661
662
663
664
665
666
667
668
669
670
671
672
673
674
675
676
677
678
679
680
681
682
683
684
685
686
687
688
689
690
691
692
693
694
695
696
697
698
699
700
701
702
703
704
705
706
707
708
709
710
711
712
713
714
715
716
717
718
719
720
721
722
723
724
725
726
727
728
729
730
731
732
733
734
735
736
737
738
739
740
741
742
743
744
745
746
747
748
749
750
751
752
753
754
755
756
757
758
759
760
761
762
763
764
765
766
767
768
769
770
771
772
773
774
775
776
777
778
779
780
781
782
783
784
785
786
787
788
789
790
791
792
793
794
795
796
797
798
799
800
801
802
803
804
805
806
807
808
809
810
811
812
813
814
815
816
817
818
819
820
821
822
823
824
825
826
827
828
829
830
831
832
833
834
835
836
837
838
839
840
841
842
843
844
845
846
847
848
849
850
851
852
853
854
855
856
857
858
859
860
861
862
863
864
865
866
867
868
869
870
871
872
873
874
875
876
877
878
879
880
881
882
883
884
885
886
887
888
889
890
891
892
893
894
895
896
897
898
899
900
901
902
903
904
905
906
907
908
909
910
911
912
913
914
915
916
917
918
919
920
921
922
923
924
925
926
927
928
929
930
931
932
933
934
935
936
937
938
939
940
941
942
943
944
945
946
947
948
949
950
951
952
953
954
955
956
957
958
959
960
961
962
963
964
965
966
967
968
969
970
971
972
973
974
975
976
977
978
979
980
981
982
983
984
985
986
987
988
989
990
991
992
993
994
995
996
997
998
999
1000
<html lang="sa">
<head>
<meta charset="UTF-8">
<meta name="viewport" content="width=device-width, initial-scale=1.0">
</head>
<body>
<div style="margin:0.5em 0.5em 0.5em 0.5em;white-space:nowrap;word-spacing:-0.25em">
नारायणीयम्
<br>ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।
<br>ॐ नमो नारायणाय ।
<br>
<br>पारायणसङ्कल्पम्
<br>शुक्लाम्बरधरं विष्णुं शशिवर्णं चतुर्भुजम् ।
<br>प्रसन्नवदनं ध्यायेत्सर्वविघ्नोपशान्तये ॥
<br>
<br>नारायण नारायण नारायण नारायण ।
<br>नारायण नारायण नारायण नारायण ॥
<br>
<br>ध्यानम्
<br>पीताम्बरं करविराजितशङ्खचक्रकौमोदकीसरसिजं करुणासमुद्रम् ।
<br>राधासहायमतिसुन्दरमन्दहासं वातालयेशमनिशं हृदि भावयामि ॥
<br>
<br>मूकं करोति वाचालं पङ्गुं लङ्घयते गिरिम् ।
<br>यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्दमाधवम् ॥
<br>
<br>वन्दे नन्दव्रजस्त्रीणां पादरेणुमभीक्ष्णशः ।
<br>यासां हरिकथोद्गीतं पुनाति भुवनत्रयम् ॥
<br>
<br>कोमळं कूजयन् वेणुं श्यामळोऽयं कुमारकः ।
<br>वेदवेद्यं परं ब्रह्म भासतां पुरतो मम ॥
<br>
<br>ध्यानश्लोकानि
<br>
<br>ॐ नमःश्रीगणेशशारदागुरुभ्यो नमः । अविघ्नमस्तु ।
<br>
<br>अगजाननपद्मार्कं गजाननमहर्निशम् ।
<br>अनेकदन्तं भक्तानामेकदन्तमुपास्महे ॥
<br>
<br>श्रीमहागणपतये नमः ।
<br>
<br>गुरवे सर्वलोकानां भिषजे भवरोगिणाम् ।
<br>निधयो सर्वविद्यानां श्रीदक्षिणामूर्तये नमः ॥
<br>
<br>अस्मद्गुरुचरणारविन्दाभ्यां नमः ।
<br>
<br>ज्ञानानन्दमयं देवं निर्मलस्फटिकाकृतिम् ।
<br>आधारं सर्वविद्यानां हयग्रीवमुपास्महे ॥
<br>
<br>श्रीहयग्रीवमूर्तये नमः ।
<br>
<br>सरस्वति नमस्तुभ्यं वरदे कामरूपिणि ।
<br>विद्यारम्भं करिष्यामि सिद्धिर्भवतु मे सदा ॥
<br>
<br>श्रीमहासरस्वत्यै नमः ।
<br>
<br>उमाकोमळहस्ताब्जसम्भावितललाटकम् ।
<br>हिरण्यकुण्डलं वन्दे कुमारं पुष्कलस्रजम् ॥
<br>
<br>शक्तिधरश्रीसुब्रह्मण्यस्वामिने नमः ।
<br>
<br>भूतनाथ सदानन्द सर्वभूतदयापर ।
<br>रक्ष रक्ष महाबाहो शास्त्रे तुभ्यं नमो नमः ॥
<br>
<br>स्वामि श्रीशबरीशशास्तारं शरणं गच्छामि ।
<br>
<br>कोमळं कूजयन् वेणुं श्यामळोऽयं कुमारकः ।
<br>वेदवेद्यं परं ब्रह्म भासतां पुरतो मम ॥
<br>
<br>यं ब्रह्मा वरुणेन्द्ररुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवैः
<br>वेदैस्साङ्गपदक्रमोपनिषदैर्गायन्ति यं सामगाः ।
<br>ध्यानावस्थिततद्गतेनमनसा पश्यन्ति यं योगिनो
<br>यस्यान्तं न विदुः सरासुरगणाः देवाय तस्मै नमः ॥
<br>
<br>कृष्णाय वासुदेवाय देवकीनन्दनाय च ।
<br>नन्दगोपकुमाराय गोविन्दाय नमो नमः ॥
<br>
<br>सायङ्काले वनान्ते कुसुमितसमये सैकतैश्चन्द्रिकायां
<br>त्रैलोक्याकर्षणाङ्गं सुरवरगणिकामोहनापाङ्गमूर्तिम् ।
<br>सेव्यं शृङ्गारभावैर्नवरसभरितैर्गोपकन्यासहस्रैः
<br>वन्देऽहं रासकेळीरतमतिसुभगं वश्यगोपालकृष्णम् ॥
<br>
<br>आनीलश्लक्ष्णकेशं ज्वलितमकरसत्कुण्डलं मन्दहास-
<br>स्यन्दार्द्रं कौस्तुभश्रीपरिगतवनमालोरुहाराभिरामम् ।
<br>श्रीवत्साङ्कं सुबाहुं मृदुलसदुदरं काञ्चनच्छायचेलं
<br>चारुस्निग्धोरुमम्भोरुहललितपदं भावयेयं भवन्तम् ॥
<br>
<br>श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे श्रीनाथ नारायण वासुदेव ॥ - (त्रिवारम्)
<br>
<br>सर्वत्र गोविन्दनामसङ्कीर्तनं - गोविन्द गोविन्द गोविन्द ।
<br>
<br>मोक्षाब्धिसारमयभागवताख्यदध्नो
<br>नारायणीयनवनीतमहो गृहीत्वा ।
<br>मायामयौघपरितप्तजनाय योगात्
<br>नारायणायावनिसुराय नमोऽस्तु तस्मै ॥
<br>
<br>गङ्गा गीता च गायत्र्यपि च तुलसिका गोपिकाचन्दनं तत्
<br>सालग्रामाभिपूजा परपुरुष तथैकादशी नामवर्णाः ।
<br>एतान्यष्टाप्ययत्नान्ययि कलिसमये त्वत्प्रसादप्रवृद्ध्या
<br>क्षिप्रं मुक्तिप्रदानीत्यभिदधुरृषयस्तेषु मां सज्जयेथाः ॥
<br>
<br>सर्वत्र गोविन्दनामसङ्कीर्तनं - गोविन्द गोविन्द गोविन्द ।
<br>
<br>After this intial prayer, chant Narayanakavacham from Shrimad
<br>Bhagavatam (6th Skandha - Chapter 8) and then Narayaneeya
<br>Arati as given at the end of the book, before starting the
<br>NarayaneeyaM Stotram.
<br>
<br>
<br>नारायणीयं स्तोत्रम्
<br>
<br>मेल्पत्तूर् नारायणभट्टतिरिवर्यविरचितं
<br>श्रीमन्नारायणीयं स्तोत्रम्
<br>
<br>प्रथमदशकम् (१)
<br>भगवतः स्वरूपं तथा माहात्म्यम् ।
<br> 1 Form and Glory of the Lord
<br>
<br>सान्द्रानन्दावबोधात्मकमनुपमितं कालदेशावधिभ्यां
<br>निर्मुक्तं नित्यमुक्तं निगमशतसहस्रेण निर्भास्यमानम् ।
<br>अस्पष्टं दृष्टमात्रे पुनरुरुपुरुषार्थात्मकं ब्रह्मतत्त्वं
<br>तत्तावद्भाति साक्षाद्गुरुपवनपुरे हन्त भाग्यं जनानाम् ॥ १-१॥
<br>
<br>एवं दुर्लभ्यवस्तुन्यपि सुलभतया हस्तलब्धे यदन्यत्
<br>तन्वा वाचा धिया वा भजति बत जनः क्षुद्रतैव स्फुटेयम् ।
<br>एते तावद्वयं तु स्थिरतरमनसा विश्वपीडापहत्यै
<br>निश्शेषात्मानमेनं गुरुपवनपुराधीशमेवाश्रयामः ॥ १-२॥
<br>
<br>सत्त्वं यत्तत्पुराभ्यामपरिकलनतो निर्मलं तेन तावद्-
<br>भूतैर्भूतेन्द्रियैस्ते वपुरिति बहुशः श्रूयते व्यासवाक्यम् ।
<br>तत्स्वच्छत्वाद्यदच्छादितपरसुखचिद्गर्भनिर्भासरूपं
<br>तस्मिन् धन्या रमन्ते श्रुतिमतिमधुरे सुग्रहे विग्रहे ते ॥ १-३॥
<br>
<br>निष्कम्पे नित्यपूर्णे निरवधि परमानन्दपीयूषरूपे
<br>निर्लीनानेकमुक्तावलिसुभगतमे निर्मलब्रह्मसिन्धौ ।
<br>कल्लोलोल्लासतुल्यं खलु विमलतरं सत्त्वमाहुस्तदात्मा
<br>कस्मान्नो निष्कलस्त्वं सकल इति वचस्त्वत्कलास्वेव भूमन् ॥ १-४॥
<br>
<br>निर्व्यापारोऽपि निष्कारणमज भजसे यत्क्रियामीक्षणाख्यां
<br>तेनैवोदेति लीना प्रकृतिरसतिकल्पाऽपि कल्पादिकाले ।
<br>तस्याः संशुद्धमंशं कमपि तमतिरोधायकं सत्त्वरूपं
<br>स त्वं धृत्वा दधासि स्वमहिमविभवाकुण्ठ वैकुण्ठरूपम् ॥ १-५॥
<br>
<br>तत्ते प्रत्यग्रधाराधरललितकलायावलीकेलिकारं
<br>लावण्यस्यैकसारं सुकृतिजनदृशां पूर्णपुण्यावतारम् ।
<br>लक्ष्मीनिश्शङ्कलीलानिलयनममृतस्यन्दसन्दोहमन्तः
<br>सिञ्चत्सञ्चिन्तकानां वपुरनुकलये मारुतागारनाथ ॥ १-६॥
<br>
<br>कष्टा ते सृष्टिचेष्टा बहुतरभवखेदावहा जीवभाजा-
<br>मित्येवं पूर्वमालोचितमजित मया नैवमद्याभिजाने ।
<br>नो चेज्जीवाः कथं वा मधुरतरमिदं त्वद्वपुश्चिद्रसार्द्रं
<br>नेत्रैः श्रोत्रैश्च पीत्वा परमरससुधाम्भोधिपूरे रमेरन् ॥ १-७॥
<br>
<br>नम्राणां सन्निधत्ते सततमपि पुरस्तैरनभ्यार्थितान-
<br>प्यर्थान् कामानजस्रं वितरति परमानन्दसान्द्रां गतिं च ।
<br>इत्थं निश्शेषलभ्यो निरवधिकफलः पारिजातो हरे त्वं
<br>क्षुद्रं तं शक्रवाटीद्रुममभिलषति व्यर्थमर्थिव्रजोऽयम् ॥ १-८॥
<br>
<br>कारुण्यात्काममन्यं ददति खलु परे स्वात्मदस्त्वं विशेषा-
<br>दैश्वर्यादीशतेऽन्ये जगति परजने स्वात्मनोऽपीश्वरस्त्वम् ।
<br>त्वय्युच्चैरारमन्ति प्रतिपदमधुरे चेतनाः स्फीतभाग्यास्-
<br>त्वं चात्माराम एवेत्यतुलगुणगणाधार शौरे नमस्ते ॥ १-९॥
<br>
<br>ऐश्वर्यं शङ्करादीश्वरविनियमनं विश्वतेजोहराणां
<br>तेजस्संहारि वीर्यं विमलमपि यशो निस्पृहैश्चोपगीतम् ।
<br>अङ्गासङ्गा सदा श्रीरखिलविदसि न क्वापि ते सङ्गवार्ता
<br>तद्वातागारवासिन् मुरहर भगवच्छब्दमुख्याश्रयोऽसि ॥ १-१०॥
<br>
<br>इति प्रथमदशकं समाप्तम् ।
<br>
<br>
<br>द्वितीयदशकम् (२)
<br>भगवतः स्वरूपमाधुर्यं तथा भक्तिमहत्त्वम् ।
<br> 2 Form of the Lord And Greatness of Devotion
<br>
<br>सूर्यस्पर्धिकिरीटमूर्ध्वतिलकप्रोद्भासिफालान्तरं
<br>कारुण्याकुलनेत्रमार्द्रहसितोल्लासं सुनासापुटम् ।
<br>गण्डोद्यन्मकराभकुण्डलयुगं कण्ठोज्ज्वलत्कौस्तुभं
<br>त्वद्रूपं वनमाल्यहारपटलश्रीवत्सदीप्रं भजे ॥ २-१॥
<br>
<br>केयूराङ्गदकङ्कणोत्तममहारत्नाङ्गुलीयाङ्कित-
<br>श्रीमद्बाहुचतुष्कसङ्गतगदाशङ्खारिपङ्केरुहाम् ।
<br>काञ्चित्काञ्चिनकाञ्चिलाञ्छितलसत्पीताम्बरालम्बिनी-
<br>मालम्बे विमलाम्बुजद्युतिपदां मूर्तिं तवार्तिच्छिदम् ॥ २-२॥
<br>
<br>यत्त्रैलोक्यमहीयसोऽपि महितं सम्मोहनं मोहनात्
<br>कान्तं कान्तिनिधानतोऽपि मधुरं माधुर्यधुर्यादपि ।
<br>सौन्दर्योत्तरतोऽपि सुन्दरतरं त्वद्रूपमाश्चर्यतोऽ-
<br>प्याश्चर्यं भुवने न कस्य कुतुकं पुष्णाति विष्णो विभो ॥ २-३॥
<br>
<br>तत्तादृङ्मधुरात्मकं तव वपुः सम्प्राप्य सम्पन्मयी
<br>सा देवी परमोत्सुका चिरतरं नाऽस्ते स्वभक्तेष्वपि ।
<br>तेनास्या बत कष्टमच्युत विभो त्वद्रूपमानोज्ञक-
<br>प्रेमस्थैर्यमयादचापलबलाच्चापल्यवार्तोदभूत् ॥ २-४॥
<br>
<br>लक्ष्मीस्तावकरामणीयकहृतैवेयं परेष्वस्थिरे-
<br>त्यस्मिन्नन्यदपि प्रमाणमधुना वक्ष्यामि लक्ष्मीपते ।
<br>ये त्वद्ध्यानगुणानुकीर्तनरसासक्ता हि भक्ता जना-
<br>स्तेष्वेषा वसति स्थिरैव दयितप्रस्तावदत्तादरा ॥ २-५॥
<br>
<br>एवम्भूतमनोज्ञतानवसुधानिष्यन्दसन्दोहनं
<br>त्वद्रूपं परचिद्रसायनमयं चेतोहरं शृण्वताम् ।
<br>सद्यः प्रेरयते मतिं मदयते रोमाञ्चयत्यङ्गकं
<br>व्यासिञ्चत्यपि शीतबाष्पविसरैरानन्दमूर्च्छोद्भवैः ॥ २-६॥
<br>
<br>एवम्भूततया हि भक्त्यभिहितो योगः स योगद्वयात्
<br>कर्मज्ञानमयाद्भृशोत्तमतरो योगीश्वरैर्गीयते ।
<br>सौन्दर्यैकरसात्मके त्वयि खलु प्रेमप्रकर्षात्मिका
<br>भक्तिर्निश्रममेव विश्वपुरुषैर्लभ्या रमावल्लभ ॥ ७॥
<br>
<br>निष्कामं नियतस्वधर्मचरणं यत्कर्मयोगाभिधं
<br>तद्दूरेत्यफलं यदौपनिषदज्ञानोपलभ्यं पुनः ।
<br>तत्त्वव्यक्ततया सुदुर्गमतरं चित्तस्य तस्माद्विभो
<br>त्वत्प्रेमात्मकभक्तिरेव सततं स्वादीयसी श्रेयसी ॥ २-८॥
<br>
<br>अत्यायासकराणि कर्मपटलान्याचर्य निर्यन्मला
<br>बोधे भक्तिपथेऽथवाप्युचिततामायान्ति किं तावता ।
<br>क्लिष्ट्वा तर्कपथे परं तव वपुर्ब्रह्माख्यमन्ये पुन-
<br>श्चित्तार्द्रत्वमृते विचिन्त्य बहुभिः सिध्यन्ति जन्मान्तरैः ॥ २-९॥
<br>
<br>त्वद्भक्तिस्तु कथारसामृतझरीनिर्मज्जनेन स्वयं
<br>सिद्ध्यन्ती विमलप्रबोधपदवीमक्लेशतस्तन्वती ।१
<br>सद्यः सिद्धिकरी जयत्ययि विभो सैवास्तु मे त्वत्पद-
<br>प्रेमप्रौढिरसार्द्रता द्रुततरं वातालयाधीश्वर ॥ २-१०॥
<br>
<br>इति द्वितीयदशकं समाप्तम् ।
<br>
<br>
<br>तृतीयदशकम् (३)
<br>उत्तमभक्तस्य गुणाः ।
<br> 3 The Qualities of the Perfect Devotee
<br>
<br>पठन्तो नामानि प्रमदभरसिन्धौ निपतिताः
<br>स्मरन्तो रूपं ते वरद कथयन्तो गुणकथाः ।
<br>चरन्तो ये भक्तास्त्वयि खलु रमन्ते परममू-
<br>नहं धन्यान्मन्ये समधिगतसर्वाभिलषितान् ॥ ३-१॥
<br>
<br>गदक्लिष्टं कष्टं तव चरणसेवारसभरेऽ-
<br>प्यनासक्तं चित्तं भवति बत विष्णो कुरु दयाम् ।
<br>भवत्पादाम्भोजस्मरणरसिको नामनिवहा-
<br>नहं गायं गायं कुहचन विवत्स्यामि विजने ॥ ३-२॥
<br>
<br>कृपा ते जाता चेत्किमिव न हि लभ्यं तनुभृतां
<br>मदीयक्लेशौघप्रशमनदशा नाम कियती ।
<br>न के के लोकेऽस्मिन्ननिशमयि शोकाभिरहिता
<br>भवद्भक्ता मुक्ताः सुखगतिमसक्ता विदधते ॥ ३-३॥
<br>
<br>मुनिप्रौढा रूढा जगति खलु गूढात्मगतयो
<br>भवत्पादाम्भोजस्मरणविरुजो नारदमुखाः ।
<br>चरन्तीश स्वैरं सततपरिनिर्भातपरचित्-
<br>सदानन्दाद्वैतप्रसरपरिमग्नाः किमपरम् ॥ ३-४॥
<br>
<br>भवद्भक्तिः स्फीता भवतु मम सैव प्रशमये-
<br>दशेषक्लेशौघं न खलु हृदि सन्देहकणिका ।
<br>न चेद्व्यासस्योक्तिस्तव च वचनं नैगमवचो
<br>भवेन्मिथ्या रथ्यापुरुषवचनप्रायमखिलम् ॥ ३-५॥
<br>
<br>भवद्भक्तिस्तावत्प्रमुखमधुरा त्वद्गुणरसात्
<br>किमप्यारूढा चेदखिलपरितापप्रशमनी ।
<br>पुनश्चान्ते स्वान्ते विमलपरिबोधोदयमिल-
<br>न्महानन्दाद्वैतं दिशति किमतः प्रार्थ्यमपरम् ॥ ३-६॥
<br>
<br>विधूय क्लेशान्मे कुरु चरणयुग्मं धृतरसं
<br>भवत्क्षेत्रप्राप्तौ करमपि च ते पूजनविधौ ।
<br>भवन्मूर्त्यालोके नयनमथ ते पादतुलसी-
<br>परिघ्राणे घ्राणं श्रवणमपि ते चारुचरिते ॥ ३-७॥
<br>
<br>प्रभूताधिव्याधिप्रसभचलिते मामकहृदि
<br>त्वदीयं तद्रूपं परमसुखचिद्रूपमुदियात् ।
<br>उदञ्चद्रोमाञ्चो गलितबहुहर्षाश्रुनिवहो
<br>यथा विस्मर्यासं दुरुपशमपीडापरिभवान् ॥ ३-८॥
<br>
<br>मरुद्गेहाधीश त्वयि खलु पराञ्चोऽपि सुखिनो
<br>भवत्स्नेही सोऽहं सुबहु परितप्ये च किमिदम् ।
<br>अकीर्तिस्ते मा भूद्वरद गदभारं प्रशमयन्
<br>भवद्भक्तोत्तंसं झटिति कुरु मां कंसदमन ॥ ३-९॥
<br>
<br>किमुक्तैर्भूयोभिस्तव हि करुणा यावदुदिया-
<br>दहं तावद्देव प्रहितविविधार्तप्रलपितः ।
<br>पुरः कॢप्ते पादे वरद तव नेष्यामि दिवसान्
<br>यथाशक्ति व्यक्तं नतिनुतिनिषेवा विरचयन् ॥ ३-१०॥
<br>
<br>इति तृतीयदशकं समाप्तम् ।
<br>
<br>
<br>चतुर्थदशकम् (४)
<br>योगाभ्यासः तथा योगसिद्धिः ।
<br> 4 Yoga And Its Attainment
<br>
<br>कल्यतां मम कुरुष्व तावतीं कल्यते भवदुपासनं यया ।
<br>स्पष्टमष्टविधयोगचर्यया पुष्टयाऽऽशु तव तुष्टिमाप्नुयाम् ॥ ४-१॥
<br>
<br>ब्रह्मचर्यद्रुढतादिभिर्यमैराप्लवादिनियमैश्च पाविताः ।
<br>कुर्महे द्रुढममी सुखासनं पङ्कजाद्यमपि वा भवत्पराः ॥ ४-२॥
<br>
<br>तारमन्तरनुचिन्त्य सन्ततं प्राणवायुमभियम्य निर्मलाः ।
<br>इन्द्रियाणि विषयादथापहृत्याऽऽस्महे भवदुपासनोन्मुखाः ॥ ४-३॥
<br>
<br>अस्फुटे वपुषि ते प्रयत्नतो धारयेम धिषणां मुहुर्मुहुः ।
<br>तेन भक्तिरसमन्तरार्द्रतामुद्वहेम भवदङ्घ्रिचिन्तकाः ॥ ४-४॥
<br>
<br>विस्फुटावयवभेदसुन्दरं त्वद्वपुस्सुचिरशीलनावशात् ।
<br>अश्रमं मनसि चिन्तयामहे ध्यानयोगनिरतास्त्वदाश्रयाः ॥ ४-५॥
<br>
<br>ध्यायतां सकलमूर्तिमीदृशीमुन्मिषन्मधुरताहृतात्मनाम् ।
<br>सान्द्रमोदरसरूपमान्तरं ब्रह्मरूपमयि तेऽवभासते ॥ ४-६॥
<br>
<br>तत्समास्वदनरूपिणीं स्थितिं त्वत्समाधिमयि विश्वनायक ।
<br>आश्रिताः पुनरतः परिच्युतावारभेमहि च धारणादिकम् ॥ ४-७॥
<br>
<br>इत्थमभ्यसननिर्भरोल्लसत्त्वत्परात्मसुखकल्पितोत्सवाः ।
<br>मुक्तभक्तकुलमौलितां गताः सञ्चरेम शुकनारदादिवत् ॥ ४-८॥
<br>
<br>त्वत्समाधिविजये तु यः पुनर्मङ्क्षु मोक्षरसिकः क्रमेण वा ।
<br>योगवश्यमनिलं षडाश्रयैरुन्नयत्यज सुषुम्नया शनैः ॥ ४-९॥
<br>
<br>लिङ्गदेहमपि सन्त्यजन्नथो लीयते त्वयि परे निराग्रहः ।
<br>ऊर्ध्वलोककुतुकी तु मूर्धतस्सार्धमेव करणैर्निरीयते ॥ ४-१०॥
<br>
<br>अग्निवासरवलर्क्षपक्षगैरुत्तरायणजुषा च दैवतैः ।
<br>प्रापितो रविपदं भवत्परो मोदवान् ध्रुवपदान्तमीयते ॥ ४-११॥
<br>
<br>आस्थितोऽथ महरालये यदा शेषवक्त्रदहनोष्मणार्द्यते ।
<br>ईयते भवदुपाश्रयस्तदा वेधसः पदमतः पुरैव वा ॥ ४-१२॥
<br>
<br>तत्र वा तव पदेऽथवा वसन् प्राकृतप्रलय एति मुक्तताम् ।
<br>स्वेच्छया खलु पुरा विमुच्यते संविभिद्य जगदण्डमोजसा ॥ ४-१३॥
<br>
<br>तस्य च क्षितिपयोमहोऽनिलद्योमहत्प्रकृतिसप्तकावृतीः ।
<br>तत्तदात्मकतया विशन् सुखी याति ते पदमनावृतं विभो ॥ ४-१४॥
<br>
<br>अर्चिरादिगतिमीदृशीं व्रजन् विच्युतिं न भजते जगत्पते ।
<br>सच्चिदात्मक भवद्गुणोदयानुच्चरन्तमनिलेश पाहि माम् ॥ ४-१५॥
<br>
<br>इति चतुर्थदशकं समाप्तं
<br>
<br>
<br>पञ्चमदशकम् (५)
<br>विराट्-पुरुषोत्पत्तिः ।
<br> 5 Cosmic Evoluion
<br>
<br>व्यक्ताव्यक्तमिदं न किञ्चिदभवत्प्राक्प्राकृतप्रक्षये
<br>मायायां गुणसाम्यरुद्धविकृतौ त्वय्यागतायां लयम् ।
<br>नो मृत्युश्च तदामृतं च समभून्नाह्नो न रात्रेः स्थिति-
<br>स्तत्रैकस्त्वमशिष्यथाः किल परानन्दप्रकाशात्मना ॥ ५-१॥
<br>
<br>कालः कर्मगुणाश्च जीवनिवहा विश्वं च कार्यं विभो
<br>चिल्लीलारतिमेयुषि त्वयि तदा निर्लीनतामाययुः ।
<br>तेषां नैव वदन्त्यसत्वमयि भोः शक्त्यात्मना तिष्ठतां
<br>नो चेत् किं गगनप्रसूनसदृशां भूयो भवेत्सम्भवः ॥ ५-२॥
<br>
<br>एवं च द्विपरार्धकालविगतावीक्षां सिसृक्षात्मिकां
<br>बिभ्राणे त्वयि चुक्षुभे त्रिभुवनीभावाय माया स्वयम् ।
<br>मायातः खलु कालशक्तिरखिलादृष्टं स्वभावोऽपि च
<br>प्रादुर्भूय गुणान्विकास्य विदधुस्तस्यास्सहायक्रियाम् ॥ ५-३॥
<br>
<br>मायासन्निहितोऽप्रविष्टवपुषा साक्षीति गीतो भवान्
<br>भेदैस्तां प्रतिबिम्बितो विविशिवान् जीवोऽपि नैवापरः ।
<br>कालादिप्रतिबोधिताऽथ भवता सञ्चोदिता च स्वयं
<br>माया सा खलु बुद्धितत्त्वमसृजद्योऽसौ महानुच्यते ॥ ५-४॥
<br>
<br>तत्रासौ त्रिगुणात्मकोऽपि च महान् सत्त्वप्रधानः स्वयं
<br>जीवेऽस्मिन् खलु निर्विकल्पमहमित्युद्बोधनिष्पादकः ।
<br>चक्रेऽस्मिन् सविकल्पबोधकमहन्तत्त्वं महान् खल्वसौ
<br>सम्पुष्टं त्रिगुणैस्तमोऽतिबहुलं विष्णो भवत्प्रेरणात् ॥ ५-५॥
<br>
<br>सोऽहं च त्रिगुणक्रमात्त्रिविधतामासाद्य वैकारिको
<br>भूयस्तैजसतामसाविति भवन्नाद्येन सत्त्वात्मना ।
<br>देवानिन्द्रियमानिनोऽकृत दिशावातार्कपाश्यश्विनो
<br>वह्नीन्द्राच्युतमित्रकान् विधुविधिश्रीरुद्रशारीरकान् ॥ ५-६॥
<br>
<br>भूमन्मानसबुद्ध्यहङ्कृतिमिलच्चित्ताख्यवृत्यन्वितं
<br>तच्चान्तःकरणं विभो तव बलात्सत्त्वांश एवासृजत् ।
<br>जातस्तैजसतो दशेन्द्रियगणस्तत्तामसांशात्पुन-
<br>स्तन्मात्रं नभसो मरुत्पुरपते शब्दोऽजनि त्वद्बलात् ॥ ५-७॥
<br>
<br>शब्दाद्व्योम ततः ससर्जिथ विभो स्पर्शं ततो मारुतं
<br>तस्माद्रूपमतो महोऽथ च रसं तोयं च गन्धं महीम् ।
<br>एवं माधव पूर्वपूर्वकलनादाद्याद्यधर्मान्वितं
<br>भूतग्राममिमं त्वमेव भगवन् प्राकाशयस्तामसात् ॥ ५-८॥
<br>
<br>एते भूतगणास्तथेन्द्रियगणा देवाश्च जाता पृथङ्-
<br>नो शेकुर्भुवनाण्डनिर्मितिविधौ देवैरमीभिस्तदा ।
<br>त्वं नानाविधसूक्तिभिर्नुतगुणस्तत्त्वान्यमून्याविशं-
<br>श्चेष्टाशक्तिमुदीर्य तानि घटयन् हैरण्यमण्डं व्यधाः ॥ ५-९॥
<br>
<br>अण्डं तत्खलु पूर्वसृष्टसलिलेऽतिष्ठत्सहस्रं समाः
<br>निर्भिन्दन्नकृथाश्चतुर्दशजगद्रूपं विराडाह्वयम् ।
<br>साहस्रैः करपादमूर्धनिवहैर्निश्शेषजीवात्मको
<br>निर्भातोऽसि मरुत्पुराधिप स मां त्रायस्व सर्वामयात् ॥ ५-१०॥
<br>
<br>इति पञ्चमदशकं समाप्तम् ।
<br>
<br>
<br>षष्ठदशकम् (६)
<br>विराट्-स्वरूपवर्णनम् ।
<br> 6 The Cosmos as the Form of the Lord
<br>
<br>एवं चतुर्दशजगन्मयतां गतस्य पातालमीश तव पादतलं वदन्ति ।
<br>पादोर्ध्वदेशमपि देव रसातलं ते गुल्फद्वयं खलु महातलमद्भुतात्मन् ॥ ६-१॥
<br>
<br>जङ्घे तलातलमथो सुतलं च जानू किञ्चोरुभागयुगलं वितलातले द्वे ।
<br>क्षोणीतलं जघनमम्बरमङ्ग नाभिर्वक्षश्च शक्रनिलयस्तव चक्रपाणे ॥ ६-२॥
<br>
<br>ग्रीवा महस्तव मुखं च जनस्तपस्तु फालं शिरस्तव समस्तमयस्य सत्यम् ।
<br>एवं जगन्मयतनो जगदाश्रितैरप्यन्यैर्निबद्धवपुषे भगवन्नमस्ते ॥ ६-३॥
<br>
<br>त्वद्ब्रह्मरन्ध्रपदमीश्वर विश्वकन्द छन्दांसि केशव घनास्तव केशपाशाः ।
<br>उल्लासिचिल्लियुगलं द्रुहिणस्य गेहं पक्ष्माणि रात्रिदिवसौ सविता च नेत्रे ॥ ६-४॥
<br>
<br>निश्शेषविश्वरचना च कटाक्षमोक्षः कर्णौ दिशोऽश्वियुगलं तव नासिके द्वे ।
<br>लोभत्रपे च भगवन्नधरोत्तरोष्ठौ तारागणश्च दशनाः शमनश्च दंष्ट्रा ॥ ६-५॥
<br>
<br>माया विलासहसितं श्वसितं समीरो जिह्वा जलं वचनमीश शकुन्तपङ्क्तिः ।
<br>सिद्धादयस्स्वरगणा मुखरन्ध्रमग्निर्देवा भुजाः स्तनयुगं तव धर्मदेवः ॥ ६-६॥
<br>
<br>पृष्ठं त्वधर्म इह देव मनस्सुधांशुरव्यक्तमेव हृदयाम्बुजमम्बुजाक्ष ।
<br>कुक्षिस्समुद्रनिवहा वसनं तु सन्ध्ये शेफः प्रजापतिरसौ वृषणौ च मित्रः ॥ ६-७॥
<br>
<br>श्रोणीस्थलं मृगगणाः पदयोर्नखास्ते हस्त्युष्ट्रसैन्धवमुखा गमनं तु कालः ।
<br>विप्रादिवर्णभवनं वदनाब्जबाहुचारूरुयुग्मचरणं करुणाम्बुधे ते ॥ ६-८॥
<br>
<br>संसारचक्रमयि चक्रधर क्रियास्ते वीर्यं महासुरगणोऽस्थिकुलानि शैलाः ।
<br>नाड्यस्सरित्समुदयस्तरवश्च रोम जीयादिदं वपुरनिर्वचनीयमीश ॥ ६-९॥
<br>
<br>ईदृग्जगन्मयवपुस्तव कर्मभाजां कर्मावसानसमये स्मरणीयमाहुः ।
<br>तस्यान्तरात्मवपुषे विमलात्मने ते वातालयाधिप नमोऽस्तु निरुन्धि रोगान् ॥ ६-१०॥
<br>
<br>इति षष्ठदशकं समाप्तम् ॥
<br>
<br>
<br>सप्तमदशकम् (७)
<br>ब्रह्मणः जन्म, तपः तथा वैकुण्ठदर्शनम् ॥
<br>
<br> 7 Bahma's Origin, Penance And Vision of Vaikuntha
<br>
<br>एवं देव चतुर्दशात्मकजगद्रूपेण जातः पुन-
<br>स्तस्योर्ध्वं खलु सत्यलोकनिलये जातोऽसि धाता स्वयम् ।
<br>यं शंसन्ति हिरण्यगर्भमखिलत्रैलोक्यजीवात्मकं
<br>योऽभूत् स्फीतरजोविकारविकसन्नानासिसृक्षारसः ॥ ७-१॥
<br>
<br>सोऽयं विश्वविसर्गदत्तहृदयस्सम्पश्यमानस्स्वयं
<br>बोधं खल्वनवाष्य विश्वविषयं चिन्ताकुलस्तस्थिवान् ।
<br>तावत्त्वं जगताम्पते तपतपेत्येवं हि वैहायसीं
<br>वाणीमेनमशिश्रवः श्रुतिसुखां कुर्वंस्तपःप्रेरणाम् ॥ ७-२॥
<br>
<br>कोऽसौ मामवदत्पुमानिति जलापूर्णे जगन्मण्डले
<br>दिक्षूद्वीक्ष्य किमप्यनीक्षितवता वाक्यार्थमुत्पश्यता ।
<br>दिव्यं वर्षसहस्रमात्तपसा तेन त्वमाराधित-
<br>स्तस्मै दर्शितवानसि स्वनिलयं वैकुण्ठमेकाद्भुतम् ॥ ७-३॥
<br>
<br>माया यत्र कदापि नो विकुरुते भाते जगद्भ्यो बहि-
<br>श्शोकक्रोधविमोहसाध्वसमुखा भावास्तु दूरं गताः ।
<br>सान्द्रानन्दझरी च यत्र परमज्योतिःप्रकाशात्मके
<br>तत्ते धाम विभावितं विजयते वैकुण्ठरूपं विभो ॥ ७-४॥
<br>
<br>यस्मिन्नाम चतुर्भुजा हरिमणिश्यामावदातत्विषो
<br>नानाभूषणरत्नदीपितदिशो राजद्विमानालयाः ।
<br>भक्तिप्राप्ततथाविधोन्नतपदा दीव्यन्ति दिव्या जना-
<br>स्तत्ते धाम निरस्तसर्वशमलं वैकुण्ठरूपं जयेत् ॥ ७-५॥
<br>
<br>नानादिव्यवधूजनैरभिवृता विद्युल्लतातुल्यया
<br>विश्वोन्मादनहृद्यगात्रलतया विद्योतिताशान्तरा ।
<br>त्वत्पादाम्बुजसौरभैककुतुकाल्लक्ष्मीः स्वयं लक्ष्यते
<br>यस्मिन् विस्मयनीयदिव्यविभवं तत्ते पदं देहि मे ॥ ७-६॥
<br>
<br>तत्रैवं प्रतिदर्शिते निजपदे रत्नासनाध्यासितं
<br>भास्वत्कोटिलसत्किरीटकटकाद्याकल्पदीप्राकृति ।
<br>श्रीवत्साङ्कितमात्तकौस्तुभमणिच्छायारुणं कारणं
<br>विश्वेषां तव रूपमैक्षत विधिस्तत्ते विभो भातु मे ॥ ७-७॥
<br>
<br>कालाम्भोदकलायकोमलरुचीचक्रेण चक्रं दिशा-
<br>मावृण्वानमुदारमन्दहसितस्यन्दप्रसन्नाननम् ।
<br>राजत्कम्बुगदारिपङ्कजधरश्रीमद्भुजामण्डलं
<br>स्रष्टुस्तुष्टिकरं वपुस्तव विभो मद्रोगमुद्वासयेत् ॥ ७-८॥
<br>
<br>दृष्ट्वा सम्भृतसम्भ्रमः कमलभूस्त्वत्पादपाथोरुहे
<br>हर्षावेशवशंवदो निपतितः प्रीत्या कृतार्थीभवन् ।
<br>जानास्येव मनीषितं मम विभो ज्ञानं तदापादय
<br>द्वैताद्वैतभवत्स्वरूपपरमित्याचष्ट तं त्वां भजे ॥ ७-९॥
<br>
<br>आताम्रे चरणे विनम्रमथ तं हस्तेन हस्ते स्पृशन्
<br>बोधस्ते भविता न सर्गविधिबिर्बन्धोऽपि सञ्जायते ।
<br>इत्याभाष्य गिरं प्रतोष्य नितरां तच्चित्तगूढः स्वयं
<br>सृष्टौ तं समुदैरयस्स भगवन्नुल्लासयोल्लाघताम् ॥ ७-१०॥
<br>
<br>इति सप्तमदशकं समाप्तम् ।
<br>
<br>
<br>अष्टमदशकम् (८)
<br>प्रलयवर्णनम् ।
<br> 8 Description of Pralaya
<br>
<br>एवं तावत्प्राकृतप्रक्षयान्ते ब्राह्मे कल्पे ह्यादिमे लब्धजन्मा ।
<br>ब्रह्मा भूयस्त्वत्त एवाप्य वेदान् सृष्टिं चक्रे पूर्वकल्पोपमानाम् ॥ ८-१॥
<br>
<br>सोऽयं चतुर्युगसहस्रमितान्यहानि तावन्मिताश्च रजनीर्बहुशो निनाय ।
<br>निद्रात्यसौ त्वयि निलीय समं स्वसृष्टैर्नैमित्तिकप्रलयमाहुरतोऽस्य रात्रिम् ॥ ८-२॥
<br>
<br>अस्मादृशां पुनरहर्मुखकृत्यतुल्यां सृष्टिं करोत्यनुदिनं स भवत्प्रसादात् ।
<br>प्राग्ब्रह्मकल्पजनुषां च परायुषां तु सुप्तप्रबोधनसमाऽस्ति तदाऽपि सृष्टिः ॥ ८-३॥
<br>
<br>पञ्चाशदब्दमधुना स्ववयोऽर्धरूपमेकं परार्धमतिवृत्य हि वर्ततेऽसौ ।
<br>तत्रान्त्यरात्रिजनितान्कथयामि भूमन् पश्चाद्दिनावतरणे च भवद्विलासान् ॥ ८-४॥
<br>
<br>दिनावसानेऽथ सरोजयोनिः सुषुप्तिकामस्त्वयि सन्निलिल्ये ।
<br>जगन्ति च त्वज्जठरं समीयुस्तदेदमेकार्णवमास विश्वम् ॥ ८-५॥
<br>
<br>तवैव वेषे फणिराजि शेषे जलैकशेषे भुवने स्म शेषे ।
<br>आनन्दसान्द्रानुभवस्वरूपः स्वयोगनिद्रापरिमुद्रितात्मा ॥ ८-६॥
<br>
<br>कालाख्यशक्तिं प्रलयावसाने प्रबोधयेत्यादिशता किलादौ ।
<br>त्वया प्रसुप्तं परिसुप्तशक्तिव्रजेन तत्राखिलजीवधाम्ना ॥ ८-७॥
<br>
<br>चतुर्युगाणां च सहस्रमेवं त्वयि प्रसुप्ते पुनरद्वितीये ।
<br>कालाख्यशक्तिः प्रथमप्रबुद्धा प्राबोधयत्त्वां किल विश्वनाथ ॥ ८-८॥
<br>
<br>विबुध्य च त्वं जलगर्भशायिन् विलोक्य लोकानखिलान्प्रलीनान् ।
<br>तेष्वेव सूक्ष्मात्मतया निजान्तःस्थितेषु विश्वेषु ददाथ दृष्टिम् ॥ ८-९॥
<br>
<br>ततस्त्वदीयादयि नाभिरन्ध्रादुदञ्चितं किञ्चन दिव्यपद्मम् ।
<br>निलीननिश्शेषपदार्थमालासङ्क्षेपरूपं मुकुलायमानम् ॥ ८-१०॥
<br>
<br>तदेतदम्भोरुहकुड्मलं ते कलेबरात्तोयपथे प्ररूढम् ।
<br>बहिर्निरीतं परितः स्फुरद्भिः स्वधामभिर्ध्वान्तमलं न्यकृन्तत् ॥ ८-११॥
<br>
<br>सम्फुल्लपत्रे नितरां विचित्रे तस्मिन्भवद्वीर्यधृते सरोजे ।
<br>स पद्मजन्मा विधिराविरासीत् स्वयम्प्रबुद्धाखिलवेदराशिः ॥ ८-१२॥
<br>
<br>अस्मिन्परात्मन् ननु पाद्मकल्पे त्वमित्थमुत्थापितपद्मयोनिः ।
<br>अनन्तभूमा मम रोगराशिं निरुन्धि वातालयवास विष्णो ॥ ८-१३॥
<br>
<br>इति अष्टमदशकं समाप्तम् ॥
<br>
<br>
<br>नवमदशकम् (९)
<br>ब्रह्मणः तपः तथा लोकसृष्टिः ।
<br> 9 Description of Creation
<br>
<br>स्थितः स कमलोद्भवस्तव हि नाभिपङ्केरुहे
<br>कुतः स्विदिदमम्बुधावुदितमित्यनालोकयन् ।
<br>तदीक्षणकुतूहलात्प्रतिदिशं विवृत्तानन-
<br>श्चतुर्वदनतामगाद्विकसदष्टदृष्ट्यम्बुजाम् ॥ ९-१॥
<br>
<br>महार्णवविघूर्णितं कमलमेव तत्केवलं
<br>विलोक्य तदुपाश्रयं तव तनुं तु नालोकयन् ।
<br>क एष कमलोदरे महति निस्सहायो ह्यहं
<br>कुतः स्विदिदमम्बुजं समजनीति चिन्तामगात् ॥ ९-२॥
<br>
<br>अमुष्य हि सरोरुहः किमपि कारणं सम्भवे-
<br>दिति स्म कृतनिश्चयः स खलु नालरन्ध्राध्वना ।
<br>स्वयोगबलविद्यया समवरूढवान्प्रौढधीः
<br>त्वदीयमतिमोहनं न तु कलेबरं दृष्टवान् ॥ ९-३॥
<br>
<br>ततस्सकलनालिकाविवरमार्गगो मार्गयन्
<br>प्रयस्य शतवत्सरं किमपि नैव सन्दृष्टवान् ।
<br>निवृत्य कमलोदरे सुखनिषण्ण एकाग्रधीः
<br>समाधिबलमादधे भवदनुग्रहैकाग्रही ॥ ९-४॥
<br>
<br>शतेन परिवत्सरैर्दृढसमाधिबन्धोल्लसत्-
<br>प्रबोधविशदीकृतः स खलु पद्मिनीसम्भवः ।
<br>अदृष्टचरमद्भुतं तव हि रूपमन्तर्दृशा
<br>व्यचष्ट परितुष्टधीर्भुजगभोगभागाश्रयम् ॥ ९-५॥
<br>
<br>किरीटमुकुटोल्लसत्कटकहारकेयूरयुङ्-
<br>मणिस्फुरितमेखलं सुपरिवीतपीताम्बरम् ।
<br>कलायकुसुमप्रभं गलतलोल्लसत्कौस्तुभं
<br>वपुस्तदयि भावये कमलजन्मने दर्शितम् ॥ ९-६॥
<br>
<br>श्रुतिप्रकरदर्शितप्रचुरवैभव श्रीपते
<br>हरे जय जय प्रभो पदमुपैषि दिष्ट्या दृशोः ।
<br>कुरुष्व धियमाशु मे भुवननिर्मितौ कर्मठा-
<br>मिति द्रुहिणवर्णितस्वगुणबंहिमा पाहि माम् ॥ ९-७॥
<br>
<br>लभस्व भुवनत्रयीरचनदक्षतामक्षतां
<br>गृहाण मदनुग्रहं कुरु तपश्च भूयो विधे ।
<br>भवत्वखिलसाधनी मयि च भक्तिरत्युत्कटे-
<br>त्युदीर्य गिरमादधा मुदितचेतसं वेधसम् ॥ ९-८॥
<br>
<br>शतं कृततपास्ततः स खलु दिव्यसंवत्सरा-
<br>नवाप्य च तपोबलं मतिबलं च पूर्वाधिकम् ।
<br>उदीक्ष्य किल कम्पितं पयसि पङ्कजं वायुना
<br>भवद्बलविजृम्भितः पवनपाथसी पीतवान् ॥ ९-९॥
<br>
<br>तवैव कृपया पुनः सरसिजेन तेनैव सः
<br>प्रकल्प्य भुवनत्रयीं प्रववृते प्रजानिर्मितौ ।
<br>तथाविधकृपाभरो गुरुमरुत्पुराधीश्वर
<br>त्वमाशु परिपाहि मां गुरुदयोक्षितैरीक्षितैः ॥ ९-१०॥
<br>
<br>इति नवमदशकं समाप्तम् ॥
<br>
<br>
<br>दशमदशकम् (१०)
<br>सृष्टिवैविध्यम् ।
<br> 10 The Variety of Creation
<br>
<br>वैकुण्ठ वर्धितबलोऽथ भवत्प्रसादा-
<br>दम्भोजयोनिरसृजत्किल जीवदेहान् ।
<br>स्थास्नूनि भूरुहमयानि तथा तिरश्चां
<br>जातीर्मनुष्यनिवहानपि देवभेदान् ॥ १०-१॥
<br>
<br>मिथ्याग्रहास्मिमतिरागविकोपभीति-
<br>रज्ञानवृत्तिमिति पञ्चविधां स सृष्ट्वा ।
<br>उद्दामतामसपदार्थविधानदून-
<br>स्तेने त्वदीयचरणस्मरणं विशुद्ध्यै ॥ १०-२॥
<br>
<br>तावत्ससर्ज मनसा सनकं सनन्दं
<br>भूयस्सनातनमुनिं च सनत्कुमारम् ।
<br>ते सृष्टिकर्मणि तु तेन नियुज्यमाना-
<br>स्त्वत्पादभक्तिरसिका जगृहुर्न वाणीम् ॥ १०-३॥
<br>
<br>तावत्प्रकोपमुदितं प्रतिरुन्धतोऽस्य
<br>भ्रूमध्यतोऽजनि मृडो भवदेकदेशः ।
<br>नामानि मे कुरु पदानि च हा विरिञ्चे-
<br>त्यादौ रुरोद किल तेन स रुद्रनामा ॥ १०-४॥
<br>
<br>एकादशाह्वयतया च विभिन्नरूपं
<br>रुद्रं विधाय दयिता वनिताश्च दत्त्वा ।
<br>तावन्त्यदत्त च पदानि भवत्प्रणुन्नः
<br>प्राह प्रजाविरचनाय च सादरं तम् ॥ १०-५॥
<br>
<br>रुद्राभिसृष्टभयदाकृतिरुद्रसङ्घ-
<br>सम्पूर्यमाणाभुवनत्रयभीतचेताः ।
<br>मा मा प्रजाः सृज तपश्चर मङ्गलाये-
<br>त्याचष्ट तं कमलभूर्भवदीरितात्मा ॥ १०-६॥
<br>
<br>तस्याथ सर्गरसिकस्य मरीचिरत्रि-
<br>स्तत्राङ्गिराः क्रतुमुनिः पुलहः पुलस्त्यः ।
<br>अङ्गादजायत भृगुश्च वसिष्ठदक्षौ
<br>श्रीनारदश्च भगवन् भवदङ्घ्रिदासः ॥ १०-७॥
<br>
<br>धर्मादिकानभिसृजन्नथ कर्दमं च
<br>वाणीं विधाय विधिरङ्गजसङ्कुलोऽभूत् ।
<br>त्वद्बोधितैः सनकदक्षमुखैस्तनूजै-
<br>रुद्बोधितश्च विरराम तमो विमुञ्चन् ॥ १०-८॥
<br>
<br>वेदान्पुराणनिवहानपि सर्वविद्याः
<br>कुर्वन्निजाननगणाच्चतुराननोऽसौ ।
<br>पुत्रेषु तेषु विनिधाय स सर्गवृद्धि-
<br>मप्राप्नुवंस्तव पदाम्बुजमाश्रितोऽभूत् ॥ १०-९॥
<br>
<br>जानन्नुपायमथ देहमजो विभज्य
<br>स्त्रीपुंसभावमभजन्मनुतद्वधूभ्याम् ।
<br>ताभ्यां च मानुषकुलानि विवर्धयंस्त्वं
<br>गोविन्द मारुतपुरेश निरुन्धि रोगान् ॥ १०-१०॥
<br>
<br>इति दशमदशकं समाप्तम् ॥
<br>
<br>
<br>एकादशदशकम् (११)
<br>सनकादीनां वैकुण्ठदर्शनम् । हिरण्याक्षस्य तथा हिरण्यकशिपोः जननम् ।
<br> 11 - Entry of Sanaka And Others Into Vaikuntha and
<br>Birth of Hiranyaksha And Hiranyakashipu
<br>
<br>क्रमेण सर्गे परिवर्धमाने कदापि दिव्याः सनकादयस्ते ।
<br>भवद्विलोकाय विकुण्ठलोकं प्रपेदिरे मारुतमन्दिरेश ॥ ११-१॥
<br>
<br>मनोज्ञनैश्रेयसकाननाद्यैरनेकवापीमणिमन्दिरैश्च ।
<br>अनोपमं तं भवतो निकेतं मुनीश्वराः प्रापुरतीतकक्ष्याः ॥ ११-२॥
<br>
<br>भवद्दिदृक्षून्भवनं विविक्षून्द्वाःस्थौ जयस्तान् विजयोऽप्यरुन्धाम् ।
<br>तेषां च चित्ते पदमाप कोपः सर्वं भवत्प्रेरणयैव भूमन् ॥ ११-३॥
<br>
<br>वैकुण्ठलोकानुचितप्रचेष्टौ कष्टौ युवां दैत्यगतिं भजेतम् ।
<br>इति प्रशप्तौ भवदाश्रयौ तौ हरिस्मृतिर्नोऽस्त्विति नेमतुस्तान् ॥ ११-४॥
<br>
<br>तदेतदाज्ञाय भवानवाप्तः सहैव लक्ष्म्या बहिरम्बुजाक्ष ।
<br>खगेश्वरांसार्पितचारुबाहुरानन्दयंस्तानभिराममूर्त्या ॥ ११-५॥
<br>
<br>प्रसाद्य गीर्भिः स्तुवतो मुनीन्द्राननन्यनाथावथ पार्षदौ तौ
<br>संरम्भयोगेन भवैस्त्रिभिर्मामुपेतमित्यात्तकृपं न्यगादीः ॥ ११-६॥
<br>
<br>त्वदीयभृत्यावथ कश्यपात्तौ सुरारिवीरावुदितौ दितौ द्वौ ।
<br>सन्ध्यासमुत्पादनकष्टचेष्टौ यमौ च लोकस्य यमाविवान्यौ ॥ ११-७॥
<br>
<br>हिरण्यपूर्वः कशिपुः किलैकः पुरो हिरण्याक्ष इति प्रतीतः ।
<br>उभौ भवन्नाथमशेषलोकं रुषा न्यरुन्धां निजवासनान्धौ ॥ ११-८॥
<br>
<br>तयोर्हिरण्याक्षमहासुरेन्द्रो रणाय धावन्ननवाप्तवैरी ।
<br>भवत्प्रियां क्ष्मां सलिले निमज्य चचार गर्वाद्विनदन् गदावान् ॥ ११-९॥
<br>
<br>ततो जलेशात्सदृशं भवन्तं निशम्य बभ्राम गवेषयंस्त्वाम् ।
<br>भक्तैकदृश्यः स कृपानिधे त्वं निरुन्धि रोगान् मरुदालयेश ॥ ११-१०॥
<br>
<br>इति एकादशदशकं समाप्तम् ॥
<br>
<br>
<br>द्वादशदशकम् (१२)
<br>वराहावतारम् ।
<br> 12 - The Boar Incarnation
<br>
<br>स्वायम्भुवो मनुरथो जनसर्गशीलो दृष्ट्वा महीमसमये सलिले निमग्नाम् ।
<br>स्रष्टारमाप शरणं भवदङ्घ्रिसेवातुष्टाशयं मुनिजनैः सह सत्यलोके ॥ १२-१॥
<br>
<br>कष्टं प्रजाः सृजति मय्यवनिर्निमग्ना स्थानं सरोजभव कल्पय तत्प्रजानाम् ।
<br>इत्येवमेष कथितो मनुना स्वयम्भूरम्भोरुहाक्ष तव पादयुगं व्यचिन्तीत् ॥ १२-२॥
<br>
<br>हा हा विभो जलमहं न्यपिबं पुरस्तादद्यापि मज्जति मही किमहं करोमि ।
<br>इत्थं त्वदङ्घ्रियुगलं शरणं यतोऽस्य नासापुटात्समभवः शिशुकोलरूपी ॥ १२-३॥
<br>
<br>अङ्गुष्ठमात्रवपुरुत्पतितः पुरस्ताद्भूयोऽथ कुम्भिसदृशः समजृम्भथास्त्वम् ।
<br>अभ्रे तथाविधमुदीक्ष्य भवन्तमुच्चैर्विस्मेरतां विधिरगात्सह सूनुभिः स्वैः ॥ १२-४॥
<br>
<br>कोऽसावचिन्त्यमहिमा किटिरुत्थितो मे नासापुटात्किमु भवेदजितस्य माया ।
<br>इत्थं विचिन्तयति धातरि शैलमात्रः सद्यो भवान्किल जगर्ज्जिथ घोरघोरम् ॥ १२-५॥
<br>
<br>तं ते निनादमुपकर्ण्य जनस्तपःस्थाः सत्यस्थिताश्च मुनयो नुनुवुर्भवन्तम् ।
<br>तत्स्तोत्रहर्षुलमनाः परिणद्य भूयस्तोयाशयं विपुलमूर्तिरवातरस्त्वम् ॥ १२-६॥
<br>
<br>ऊर्ध्वप्रसारिपरिधूम्रविधूतरोमा प्रोत्क्षिप्तवालधिरवाङ्मुखघोरघोणः ।४
<br>तूर्णप्रदीर्णजलदः परिघूर्णदक्ष्णा स्तोतॄन्मुनीन् शिशिरयन्नवतेरिथ त्वम् ॥ १२-७॥
<br>
<br>अन्तर्जलं तदनु सङ्कुलनक्रचक्रं भ्राम्यत्तिमिङ्गिलकुलं कलुषोर्मिमालम् ।
<br>आविश्य भीषणरवेण रसातलस्थानाकम्पयन्वसुमतीमगवेषयस्त्वम् ॥ १२-८॥
<br>
<br>दृष्ट्वाऽथ दैत्यहतकेन रसातलान्ते संवेशितां झटिति कूटकिटिर्विभो त्वम् ।
<br>आपातुकानविगणय्य सुरारिखेटान् दंष्ट्राङ्कुरेण वसुधामदधाः सलीलम् ॥ १२-९॥
<br>
<br>अभ्युद्धरन्नथ धरां दशनाग्रलग्नमुस्ताङ्कुराङ्कित इवाधिकपीवरात्मा ।
<br>उद्धूतघोरसलिलाज्जलधेरुदञ्चन् क्रीडावराहवपुरीश्वर पाहि रोगात् ॥ १२-१०॥
<br>
<br>इति द्वादशदशकं समाप्तम् ॥
<br>
<br>
<br>त्रयोदशदशकम् (१३)
<br>हिरण्याक्षवधम् ।
<br> 13 - The Slaying of HiranyakSha
<br>
<br>हिरण्याक्षं तावद्वरद भवदन्वेषणपरं
<br>चरन्तं सांवर्ते पयसि निजजङ्घापरिमिते ।
<br>भवद्भक्तो गत्वा कपटपटुधीर्नारदमुनिः
<br>शनैरूचे नन्दन् दनुजमपि निन्दंस्तव बलम् ॥ १३-१॥
<br>
<br>स मायावी विष्णुर्हरति भवदीयां वसुमतीं
<br>प्रभो कष्टं कष्टं किमिदमिति तेनाभिगदितः ।
<br>नदन् क्वासौ क्वासाविति स मुनिना दर्शितपथो
<br>भवन्तं सम्प्रापद्धरणिधरमुद्यन्तमुदकात् ॥ १३-२॥
<br>
<br>अहो आरण्योऽयं मृग इति हसन्तं बहुतरै-
<br>र्दुरुक्तैर्विध्यन्तं दितिसुतमवज्ञाय भगवन् ।
<br>महीं दृष्ट्वा दंष्ट्राशिरसि चकितां स्वेन महसा
<br>पयोधावाधाय प्रसभमुदयुङ्क्था मृधविधौ ॥ १३-३॥
<br>
<br>गदापाणौ दैत्ये त्वमपि हि गृहीतोन्नतगदो
<br>नियुद्धेन क्रीडन्घटघटरवोद्घुष्टवियता ।
<br>रणालोकौत्सुक्यान्मिलति सुरसङ्घे द्रुतममुं५
<br>निरुन्ध्याः सन्ध्यातः प्रथममिति धात्रा जगदिषे ॥ १३-४॥
<br>
<br>गदोन्मर्दे तस्मिंस्तव खलु गदायां दितिभुवो
<br>गदाघाताद्भूमौ झटिति पतितायामहह ! भोः ! ।
<br>मृदुस्मेरास्यस्त्वं दनुजकुलनिर्मूलनचणं
<br>महाचक्रं स्मृत्वा करभुवि दधानो रुरुचिषे ॥ १३-५॥
<br>
<br>ततः शूलं कालप्रतिमरुषि दैत्ये विसृजति
<br>त्वयि छिन्दत्येतत् करकलितचक्रप्रहरणात् ।
<br>समारुष्टो मुष्ट्या स खलु वितुदंस्त्वां समतनोत्
<br>गलन्माये मायास्त्वयि किल जगन्मोहनकरीः ॥ १३-६॥
<br>
<br>भवच्चक्रज्योतिष्कणलवनिपातेन विधुते
<br>ततो मायाचक्रे विततघनरोषान्धमनसम् ।
<br>गरिष्ठाभिर्मुष्टिप्रहृतिभिरभिघ्नन्तमसुरं
<br>स्वपादाङ्गुष्ठेन श्रवणपदमूले निरवधीः ॥ १३-७॥
<br>
<br>महाकायस्सोऽयं तव करसरोजप्रमथितो
<br>गलद्रक्तो वक्त्रादपतदृषिभिः श्लाघितहतिः ।
<br>तदा त्वामुद्दामप्रमदभरविद्योतिहृदया
<br>मुनीन्द्रास्सान्द्राभिः स्तुतिभिरनुवन्नध्वरतनुम् ॥ १३-८॥
<br>
<br>त्वचि च्छन्दो रोमस्वपि कुशगणश्चक्षुषि घृतं
<br>चतुर्होतारोऽङ्घ्रौ स्रुगपि वदने चोदर इडा ।
<br>ग्रहा जिह्वायां ते परपुरुष कर्णे च चमसा
<br>विभो सोमो वीर्यं वरद गलदेशेऽप्युपसदः ॥ १३-९॥
<br>
<br>मुनीन्द्रैरित्यादिस्तवनमुखरैर्मोदितमना
<br>महीयस्या मूर्त्या विमलतरकीर्त्या च विलसन् ।
<br>स्वधिष्ण्यं सम्प्राप्तः सुखरसविहारी मधुरिपो
<br>निरुन्ध्या रोगं मे सकलमपि वातालयपते ॥ १३-१०॥
<br>
<br>इति त्रयोदशदशकं समाप्तम् ॥
<br>
<br>
<br>चतुर्दशदशकम् (१४)
<br>कपिलावतारम् ।
<br> 14 - The Kapila Incarnation
<br>
<br>समनुस्मृततावकाङ्घ्रियुग्मः स मनुः पङ्कजसम्भवाङ्गजन्मा ।
<br>निजमन्तरमन्तरायहीनं चरितं ते कथयन्सुखं निनाय ॥ १४-१॥
<br>
<br>समये खलु तत्र कर्दमाख्यो द्रुहिणच्छायभवस्तदीयवाचा ।
<br>धृतसर्गरसो निसर्गरम्यं भगवंस्त्वामयुतं समाः सिषेवे ॥ १४-२॥
<br>
<br>गरुडोपरि कालमेघकम्रं विलसत्केलिसरोजपाणिपद्मम् ।
<br>हसितोल्लसिताननं विभो त्वं वपुराविष्कुरुषे स्म कर्दमाय ॥ १४-३॥
<br>
<br>स्तुवते पुलकावृताय तस्मै मनुपुत्रीं दयितां नवापि पुत्रीः ।
<br>कपिलं च सुतं स्वमेव पश्चात्स्वगतिं चाप्यनुगृह्य निर्गतोऽभूः ॥ १४-४॥
<br>
<br>स मनुश्शतरूपया महिष्या गुणवत्या सुतया च देवहूत्या ।
<br>भवदीरितनारदोपदिष्टस्समगात्कर्दममागतिप्रतीक्षम् ॥ १४-५॥
<br>
<br>मनुनोपहृतां च देवहूतिं तरुणीरत्नमवाप्य कर्दमोऽसौ ।
<br>भवदर्चननिर्वृतोऽपि तस्यां दृढशुश्रूषणया दधौ प्रसादम् ॥ १४-६॥
<br>
<br>स पुनस्त्वदुपासनप्रभावाद्दयिताकामकृते कृते विमाने ।
<br>वनिताकुलसङ्कुलो नवात्मा व्यहरद्देवपथेषु देवहूत्या ॥ १४-७॥
<br>
<br>शतवर्षमथ व्यतीत्य सोऽयं नव कन्याः समवाप्य धन्यरूपाः ।
<br>वनयानसमुद्यतोऽपि कान्ताहितकृत्त्वज्जननोत्सुको न्यवात्सीत् ॥ १४-८॥
<br>
<br>निजभर्तृगिरा भवन्निषेवा निरतायामथ देव देवहूत्याम् ।
<br>कपिलस्त्वमजायथा जनानां प्रथयिष्यन्परमात्मतत्त्वविद्याम् ॥ १४-९॥
<br>
<br>वनमेयुषि कर्दमे प्रसन्ने मतसर्वस्वमुपादिशञ्जनन्यै ।
<br>कपिलात्मक वायुमदिरेश त्वरितं त्वं परिपाहि मां गदौघात् ॥ १४-१०॥
<br>
<br>इति चतुर्दशदशकं समाप्तम् ॥
<br>
<br>
<br>पञ्चदशदशकम् (१५)
<br>कपिलोपदेशम् ।
<br> 15 - The Teachings of Kapila
<br>
<br>मतिरिह गुणसक्ता बन्धकृत्तेष्वसक्ता
<br>त्वमृतकृदुपरुन्धे भक्तियोगस्तु सक्तिम् ।
<br>महदनुगमलभ्या भक्तिरेवात्र साध्या
<br>कपिलतनुरिति त्वं देवहूत्यै न्यगादीः ॥ १५-१॥
<br>
<br>प्रकृतिमहदहङ्काराश्च मात्राश्च भूता-
<br>न्यपि हृदपि दशाक्षी पूरुषः पञ्चविंशः ।
<br>इति विदितविभागो मुच्यतेऽसौ प्रकृत्या
<br>कपिलतनुरिति त्वं देवहूत्यै न्यगादीः ॥ १५-२॥
<br>
<br>प्रकृतिगतगुणौघैर्नाज्यते पूरुषोऽयं
<br>यदि तु सजति तस्यां तद्गुणास्तं भजेरन् ।
<br>मदनुभजनतत्त्वालोचनैः साप्यपेयात्
<br>कपिलतनुरिति त्वं देवहूत्यै न्यगादीः ॥ १५-३॥
<br>
<br>विमलमतिरुपात्तैरासनाद्यैर्मदङ्गं
<br>गरुडसमधिरूढं दिव्यभूषायुधाङ्कम् ।
<br>रुचितुलिततमालं शीलयेतानुवेलं
<br>कपिलतनुरिति त्वं देवहूत्यै न्यगादीः ॥ १५-४॥
<br>
<br>मम गुणगणलीलाकर्णनैः कीर्तनाद्यैः
<br>मयि सुरसरिदोघप्रख्यचित्तानुवृत्तिः ।
<br>भवति परमभक्तिः सा हि मृत्योर्विजेत्री
<br>कपिलतनुरिति त्वं देवहूत्यै न्यगादीः ॥ १५-५॥
<br>
<br>अहह बहुलहिंसासञ्चितार्थैः कुटुम्बं
<br>प्रतिदिनमनुपुष्णन् स्त्रीजितो बाललाली ।
<br>विशति हि गृहसक्तो यातनां मय्यभक्तः
<br>कपिलतनुरिति त्वं देवहूत्यै न्यगादीः ॥ १५-६॥
<br>
<br>युवतिजठरखिन्नो जातबोधोऽप्यकाण्डे
<br>प्रसवगलितबोधः पीडयोल्लङ्घ्य बाल्यम् ।६
<br>पुनरपि बत मुह्यत्येव तारुण्यकाले
<br>कपिलतनुरिति त्वं देवहूत्यै न्यगादीः ॥ १५-७॥
<br>
<br>पितृसुरगणयाजी धार्मिको यो गृहस्थः
<br>स च निपतति काले दक्षिणाध्वोपगामी ।
<br>मयि निहितमकामं कर्म तूदक्पथार्थे
<br>कपिलतनुरिति त्वं देवहूत्यै न्यगादीः ॥ १५-८॥
<br>
<br>इति सुविदितवेद्यां देव हे देवहूतिं
<br>कृतनुतिमनुगृह्य त्वं गतो योगिसङ्घैः ।
<br>विमलमतिरथाऽसौ भक्तियोगेन मुक्ता
<br>त्वमपि जनहितीर्थं वर्तसे प्रागुदीच्याम् ॥ १५-९॥
<br>
<br>परम किमु बहूक्त्या त्वत्पदाम्भोजभक्तिं
<br>सकलभयविनेत्रीं सर्वकामोपनेत्रीम् ।
<br>वदसि खलु दृढं त्वं तद्विधूयामयान्मे
<br>गुरुपवनपुरेश त्वय्युपाधत्स्व भक्तिम् ॥ १५-१०॥
<br>
<br>इति पञ्चदशदशकं समाप्तम् ॥
<br>
<br>
<br>षोडशदशकम् (१६)
<br>नरनारायणावतारं तथा दक्षयागः ।
<br> 16 - Nara Narayana And DakShayaga
<br>
<br>दक्षो विरिञ्चतनयोऽथ मनोस्तनूजां लब्ध्वा प्रसूतिमिह षोडश चाप कन्याः ।
<br>धर्मे त्रयोदश ददौ पितृषु स्वधां च स्वाहां हविर्भुजि सतीं गिरिशे त्वदंशे ॥ १६-१॥
<br>
<br>मूर्तिर्हि धर्मगृहिणी सुषुवे भवन्तं नारायणं नरसखं महितानुभावम् ।
<br>यज्जन्मनि प्रमुदिताः कृततुर्यघोषाः पुष्पोत्करान्प्रववृषुर्नुनुवुः सुरौघाः ॥ १६-२॥
<br>
<br>दैत्यं सहस्रकवचं कवचैः परीतं साहस्रवत्सरतपस्समराभिलव्यैः ।
<br>पर्यायनिर्मिततपस्समरौ भवन्तौ शिष्टैककङ्कटममुं न्यहतां सललिम् ॥ १६-३॥
<br>
<br>अन्वाचरन्नुपदिशन्नपि मोक्षधर्मं त्वं भ्रातृमान् बदरिकाश्रममध्यवात्सीः ।
<br>शक्रोऽथ ते शमतपोबलनिस्सहात्मा दिव्याङ्गनापरिवृतं प्रजिघाय मारम् ॥ १६-४॥
<br>
<br>कामो वसन्तमलयानिलबन्धुशाली कान्ताकटाक्षविशिखैर्विकसद्विलासैः ।
<br>विध्यन्मुहुर्मुहुरकम्पमुदीक्ष्य च त्वां भीतस्त्वायाथ जगदे मृदुहासभाजा ॥ १६-५॥
<br>
<br>भीत्यालमङ्गजवसन्तसुराङ्गना वो मन्मानसन्त्विह जुषुध्वमिति ब्रुवाणः ।
<br>त्वं विस्मयेन परितः स्तुवतामथैषां प्रादर्शयः स्वपरिचारककातराक्षीः ॥ १६-६॥
<br>
<br>सम्मोहनाय मिलिता मदनादयस्ते त्वद्दासिकापरिमलैः किल मोहमापुः ।
<br>दत्तां त्वया च जगृहुस्त्रपयैव सर्वस्वर्वासिगर्वशमनीं पुनरुर्वशीं ताम् ॥ १६-७॥
<br>
<br>दृष्ट्वोर्वशीं तव कथां च निशम्य शक्रः पर्याकुलोऽजनि भवन्महिमावमर्शात् ।
<br>एवं प्रशान्तरमणीयतरोऽवतारस्त्वत्तोऽधिको वरद कृष्णतनुस्त्वमेव ॥ १६-८॥
<br>
<br>दक्षस्तु धातुरतिलालनया रजोऽन्धो नात्यादृतस्त्वयि च कष्टमशान्तिरासीत् ।
<br>येन व्यरुन्ध स भवत्तनुमेव शर्वं यज्ञे च वैरपिशुने स्वसुतां व्यमानीत् ॥ १६-९॥
<br>
<br>क्रुद्धे शमर्दितमखः स तु कृत्तशीर्षो देवप्रसादितहरादथ लब्धजीवः ।७
<br>त्वत्पूरितक्रतुवरः पुनराप शान्तिं स त्वं प्रशान्तिकर पाहि मरुत्पुरेश ॥ १६-१०॥
<br>
<br>इति षोडशदशकं समाप्तम् ॥
<br>
<br>
<br>सप्तदशदशकम् (१७)
<br>ध्रुवचरितम् ।
<br> 17 - The Story of Dhruva
<br>
<br>उत्तानपादनृपतेर्मनुनन्दनस्य जाया बभूव सुरुचिर्नितरामभीष्टा ।
<br>अन्या सुनीतिरिति भर्तुरनादृता सा त्वामेव नित्यमगतिः शरणं गताऽभूत् ॥ १७-१॥
<br>
<br>अङ्के पितुः सुरुचिपुत्रकमुत्तमं तं दृष्ट्वा ध्रुवः किल सुनीतिसुतोऽधिरोक्ष्यन् ।
<br>आचिक्षिपे किल शिशुः सुतरां सुरुच्या दुस्सन्त्यजा खलु भवद्विमुखैरसूया ॥ १७-२॥
<br>
<br>त्वन्मोहिते पितरि पश्यति दारवश्ये दूरं दुरुक्तिनिहतः स गतो निजाम्बाम् ।
<br>साऽपि स्वकर्मगतिसन्तरणाय पुंसां त्वत्पादमेव शरणं शिशवे शशंस ॥ १७-३॥
<br>
<br>आकर्ण्य सोऽपि भवदर्चनिश्चितात्मा मानी निरेत्य नगरात्किल पञ्चवर्षः ।
<br>सन्दृष्टनारदनिवेदितमन्त्रमार्गस्त्वामारराध तपसा मधुकाननान्ते ॥ १७-४॥
<br>
<br>ताते विषण्णहृदये नगरीं गतेन श्रीनारदेन परिसान्त्वितचित्तवृत्तौ ।
<br>बालस्त्वदर्पितमनाः क्रमवर्धितेन निन्ये कठोरतपसा किल पञ्च मासान् ॥ १७-५॥
<br>
<br>तावत्तपोबलनिरुच्छ्वसिते दिगन्ते देवार्थितस्त्वमुदयत्करुणार्द्रचेताः ।
<br>त्वद्रूपचिद्रसनिलीनमतेः पुरस्तादाविर्बभूविथ विभो गरुडाधिरूढः ॥ १७-६॥
<br>
<br>त्वद्दर्शनप्रमदभारतरङ्गितं तं दृग्भ्यां निमग्नमिव रूपरसायने ते ।
<br>तुष्टूषमाणमवगम्य कपोलदेशे संस्पृष्टवानसि दरेण तथाऽऽदरेण ॥ १७-७॥
<br>
<br>तावद्विबोधविमलं प्रणुवन्तमेनमाभाषथास्त्वमवगम्य तदीयभावम् ।
<br>राज्यं चिरं समनुभूय भजस्व भूयः सर्वोत्तरं ध्रुव पदं विनिवृत्तिहीनम् ॥ १७-८॥
<br>
<br>इत्यूचिषि त्वयि गते नृपनन्दनोऽसावानन्दिताखिलजनो नगरीमुपेतः ।
<br>रेमे चिरं भवदनुग्रहपूर्णकामस्ताते गते च वनमादृतराज्यभारः ॥ १७-९॥
<br>
<br>यक्षेण देव निहते पुनरुत्तमेऽस्मिन् यक्षैः स युद्धनिरतो विरतो मनूक्त्या ।
<br>शान्त्या प्रसन्नहृदयाद्धनदादुपेतात् त्वद्भक्तिमेव सुदृढामवृणोन्महात्मा ॥ १७-१०॥
<br>
<br>अन्ते भवत्पुरुषनीतविमानयातो मात्रा समं ध्रुवपदे मुदितोऽयमास्ते ।
<br>एवं स्वभृत्यजनपालनलोलधीस्त्वं वातालयाधिप निरुन्धि ममामयौघान् ॥ १७-११॥
<br>
<br>इति सप्तदशदशकं समाप्तम् ॥
<br>
<br>
<br>अष्टादशदशकम् (१८)
<br>पृथुचरितम् ।
<br> 18 - The Story of Prithu
<br>
<br>जातस्य ध्रुवकुल एव तुङ्गकीर्तेरङ्गस्य व्यजनि सुतः स वेननामा ।
<br>तद्दोषव्यथितमतिः स राजवर्यस्त्वत्पादे विहितमना वनं गतोऽभूत् ॥ १८-१॥
<br>
<br>पापोऽपि क्षितितलपालनाय वेनः पौराद्यैरुपनिहितः कठोरवीर्यः ।
<br>सर्वेभ्यो निजबलमेव सम्प्रशंसन् भूचक्रे तव यजनान्ययं न्यरौत्सीत् ॥ १८-२॥
<br>
<br>सम्प्राप्ते हितकथनाय तापसौघे मत्तोऽन्यो भुवनपतिर्न कश्चनेति ।
<br>त्वन्निन्दावचनपरो मुनीश्वरैस्तैः शापाग्नौ शलभदशामनायि वेनः ॥ १८-३॥
<br>
<br>तन्नाशात्खलजनभीरुकैर्मुनीन्द्रैस्तन्मात्रा चिरपरिरक्षिते तदङ्गे ।
<br>त्यक्ताघे परिमथितादथोरुदण्डाद्दोर्दण्डे परिमथिते त्वमाविरासीः ॥ १८-४॥
<br>
<br>विख्यातः पृथुरिति तापसोपदिष्टैः सूताद्यैः परिणुतभाविभूरिवीर्यः ।
<br>वेनार्त्या कबलितसम्पदं धरित्रीमाक्रान्तां निजधनुषा समामकार्षीः ॥ १८-५॥
<br>
<br>भूयस्तां निजकुलमुख्यवत्सयुक्तैर्देवाद्यैः समुचितचारुभाजनेषु ।
<br>अन्नादीन्यभिलषितानि यानि तानि स्वच्छन्दं सुरभितनूमदूदुहस्त्वम् ॥ १८-६॥
<br>
<br>आत्मानं यजति मखैस्त्वयि त्रिधामन्नारब्धे शततमवाजिमेधयागे ।
<br>स्पर्धालुः शतमख एत्य नीचवेषो हृत्वाऽश्वं तव तनयात् पराजितोऽभूत् ॥ १८-७॥
<br>
<br>देवेन्द्रं मुहुरिति वाजिनं हरन्तं वह्नौ तं मुनिवरमण्डले जुहूषौ ।
<br>रुन्धाने कमलभवे क्रतोः समाप्तौ साक्षात्त्वं मधुरिपुमैक्षथाः स्वयं स्वम् ॥ १८-८॥
<br>
<br>तद्दत्तं वरमुपलभ्य भक्तिमेकां गङ्गान्ते विहितपदः कदापि देव ।
<br>सत्रस्थं मुनिनिवहं हितानि शंसन्नैक्षिष्ठाः सनकमुखान् मुनीन् पुरस्तात् ॥ १८-९॥
<br>
<br>विज्ञानं सनकमुखोदितं दधानः स्वात्मानं स्वयमगमो वनान्तसेवी ।
<br>तत्तादृक्पृथुवपुरीश सत्वरं मे रोगौघं प्रशमय वातगेहवासिन् ॥ १८-१०॥
<br>
<br>इति अष्टादशदशकं समाप्तम् ॥
<br>
<br>
<br>एकोनविंशदशकम् (१९)
<br>प्रचेतॄणां चरितम् ।
<br> 19 -The Story of Pracetas
<br>
<br>पृथोस्तु नप्ता पृथुधर्मकर्मठः प्राचीनबर्हिर्युवतौ शतद्रुतौ ।
<br>प्रचेतसो नाम सुचेतसः सुतानजीजनत्त्वत्करुणाङ्कुरानिव ॥ १९-१॥
<br>
<br>पितुः सिसृक्षानिरतस्य शासनाद्भवत्तपस्याभिरता दशापि ते ।
<br>पयोनिधिं पश्चिममेत्य तत्तटे सरोवरं सन्ददृशुर्मनोहरम् ॥ १९-२॥
<br>
<br>तदा भवत्तीर्थमिदं समागतो भवो भवत्सेवकदर्शनादृतः ।